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आइए_आज_आपको_मोतियाबिंद_और_उसके_इलाज़_की_कहानी_सुनाते_हैं...

  आइए_आज_आपको_मोतियाबिंद_और_उसके_इलाज़_की_कहानी_सुनाते_हैं...  डॉ राकेश पाठक  तो भाईयो, बहनो.... मोतियाबिंद यानी इंसान की आंखों में झिल्ली (...

 आइए_आज_आपको_मोतियाबिंद_और_उसके_इलाज़_की_कहानी_सुनाते_हैं...

 डॉ राकेश पाठक 

तो भाईयो, बहनो.... मोतियाबिंद यानी इंसान की आंखों में झिल्ली (झीना सा पर्दा) उतर आना। एक उम्र के साथ लगभग सभी लोगों की आंखों में उतरता है। यह मनुष्य के जीवन में आदि अनादि काल से रहा आया होगा। शल्य चिकित्सा के जनक आचार्य सुश्रुत को भी इसके बारे में जानकारी थी।

बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक यानी 1949 तक इसका इलाज़ बस इतना था कि डॉक्टर ऑपरेशन करके झिल्ली निकाल देते थे, टांका लगा दिया जाता था। मोटे मोटे ग्लास का चश्मा लग जाता था। इसकी चपेट में आकर दुनिया की चालीस फीसदी आबादी किसी खास काम लायक नहीं रहती थी।

ऑपरेशन के बाद चश्मे के मोटे कांच और हाथों के  बीच तालमेल नहीं रह पाता था सो काम धंधे से भी हाथ धोना पड़ता था 

ज्यादातर लोग घर के चबूतरे या मुहल्ले की चौपाल पर गौदुआ (गीदड़) या शेर की कहानी सुनाने लायक ही रह जाते थे। यह हाल अपने यहां ही नहीं दुनिया भर में था।

अब सुनिए आंखों में लेंस की कहानी...

एक डॉक्टर साहब थे इंग्लैंड में डॉ हैराल्ड रिडले। सन 1906 में जन्मे और 2001 में दुनिया से विदा हुए लेकिन विदा होने से पहले एक महान अविष्कार करके मानवता पर उपकार कर गए।

डॉ रिडले नेत्र विज्ञानी थे। जैसी रीत चली आ रही थी उसी तरीके से मोतियाबिंद के ऑपरेशन करते रहते थे। एक दिन एक मरीज की आंखों से झिल्ली निकाली, टांके लगाए और हाथ झाड़ कर चलने लगे। उनके पास थर्ड ईयर का एक मेडिकल छात्र खड़ा था... उसने अनायास कह दिया.. सर आपने झिल्ली को रिप्लेस तो किया ही नहीं..

डॉ रिडले अवाक...झिल्ली निकाल कर कभी कुछ और तो लगाते ही नहीं थे..लगाने को कुछ था भी नहीं।

लेकिन उस लड़के की बात उनके दिमाग़ में बैठ गई।

आगे हुआ यूं कि उसी दौर में  द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था । डॉ रिडले के पास रॉयल एयरफोर्स के फाइटर पायलट इलाज़ के लिए आते थे जिनकी आंखों में युद्ध के दौरान कोई न कोई ज़ख्म हुआ था।

इनमें से बहुत से पायलट की आंखों में हवाई जहाज़ की विंड स्क्रीन के छोटे छोटे टुकड़े धंसे होते थे। डॉक्टर रिडले ने देखा कि लंबे समय तक ऐसे  टुकड़े आंख में रहने के बाद भी उससे आंख को कोई ज्यादा तकलीफ़ या नुकसान नहीं हुआ था।। डॉ रिडले के दिमाग़ की बत्ती एकदम से जल उठी।

डॉक्टर ने विमान बनाने वाली कम्पनी से संपर्क किया। विंड स्क्रीन जिस सामग्री से बनती थी उसकी पड़ताल की। डॉक्टर ने कंपनी से गुजारिश की कि एक्रेलिक की झिल्ली बना दें जिसे आंख में लगाया जा सके। सन 1942 से 1949 तक यह कवायद चली। अंततः 1949 में कंपनी ने ऐसा लेंस बना कर डॉक्टर को दिया जो मोतियाबिंद के ऑपरेशन के बाद लगाया जा सके।

अब सवाल ये था कि इसका पहली बार प्रयोग किस मरीज़ पर किया जाए? संयोग से उनकी एक नर्स को मोतियाबिंद हो गया। नर्स ने जोखिम उठा कर लेंस लगाने के लिए खुद को प्रस्तुत किया। आख़िर पहला लेंस उस नर्स को लगाया गया और यह प्रयोग सफल रहा।

संयोग यह भी है कि आगे चल कर ख़ुद डॉक्टर रिडले को भी मोतियाबिंद हुआ और उनकी आंखों में भी लेंस लगाया गया। वे दुनिया के विरले आविष्कारक हैं जिन पर इनके खुद के आविष्कार का प्रयोग आजमाया गया।

यही लेंस लगातार परिष्कृत होकर पॉली मिथाइल मैथा एक्रीलेट (PMMA) का लगने लगा। 6 MM डाई मीटर के इस लेंस ने दुनिया के करोड़ों लोगों की दुनिया बदल दी है 

डॉक्टर रिडले के उस विद्यार्थी की एक नादान जिज्ञासा ने उन्हें एक महान आविष्कार की प्रेरणा दी...शायद इसीलिए निदा फ़ाज़ली ने कहा..

दो और दो का जोड़ हमेशा चार नहीं होता

सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला

मोतियाबिंद की यह लंबी कहानी सुनाने की वजह यह है कि 'ख़ाकसार' ने अभी अभी ऐसा ही ऑपरेशन करवा कर लेंस लगवाया और अपनी नज़र साफ़ करवाई है

शुक्रिया विज्ञान 

शुक्रिया डॉक्टर अरविंद कुमार दुबे

 Arvind Kumar Dubey ji




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