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राष्ट्र, राज्य और समाज चिंतन

  राष्ट्र, राज्य और समाज चिंतन   राघवेंद्र श्रीवास्तव शिवपुरी  न्यायाधीश जितने अच्छे इंसान होते है न्यायिक व्यवस्था उतनी ही चिंताजनक है .......

 राष्ट्र, राज्य और समाज चिंतन 

 राघवेंद्र श्रीवास्तव शिवपुरी 


न्यायाधीश जितने अच्छे इंसान होते है न्यायिक व्यवस्था उतनी ही चिंताजनक है ......।


 आमतौर पर लोग न्यायालय के विषय में लिखने में संकोच करते हैं इसलिए मैं सर्वप्रथम अपने न्यायिक अनुभवों को ही साझा कर रहा हूं  ।

अपवाद हर जगह होते हैं किंतु हमारी न्याय प्रणाली में जिन लोगो पर  न्याय करने का भार है वह तो अच्छे इंसान  होते हैं किंतु  इसके बावजूद देश की न्याय प्रणाली  न्यायाधीशों की कमी ,न्यायालय  प्रकरणों की बहुलता और न्यायिक प्रणाली की जटिलता  के कारण  एक प्रकार से बहुत अन्याय पूर्ण हो गई है ।

आगे  कुछ  प्रकरणों का उल्लेख करूंगा और माननीय न्यायाधीशों की वेदना का भी ।

  न्यायाधीश महानुभाव कार्य व्यवहार के कारण  बहुत ही सीमित लोगों  के संपर्क में होते हैं ।  इसलिए इनकी संवेदनशीलता और दर्द का एहसास भी कम ही लोगों को होता है यहां मैं न्यायिक सेवा के एक परम सम्मानीय मित्र के एक     न्यायालय प्रसंग  का उल्लेख कर रहा हूं जो उन्होंने  मुझे सुनाया था। और यह प्रसंग तीन दशक पूर्व का है 

। और यह इस बात का प्रमाण भी है कि उस दौर के न्यायाधीश कितने यथार्थवादी थे ।

  उन्होंने बताया कि एक पीड़ित व्यक्ति उनके न्यायालय में  अपना बयान दर्ज करा रहा था ।उस समय फिजिकल चौकी  नगर पालिका की एक दुकान में   हुआ करती थी।  इसलिए उस गरीव ,कम पढ़े लिखे व्यक्ति ने अपने बयान में  कहा कि -"जब मैं पुलिस की दुकान पर पहुंचा तो दुकान की शटर बंद थी ।" जैसे ही गवाह ने चौकी के लिए," पुलिस की  दुकान " शब्द का उपयोग किया तो वहां उपस्थित किसी वकील ने उसे टोका । तब उन संवेदनशील माननीय जज महानुभाव ने वकील साहब को रोकते हुए कहा कि-  बयानकता जो कुछ कह रहा है उसे उसके ही शब्दों में  लिखा जाए आपके शब्द बदलने से उसका भाव प्रभावित हो सकता है ।

        यह छोटा सा उदाहरण न्यायाधीश महोदय की संवेदनशीलता और न्याय प्रियता का उदाहरण है ।

          किंतु अब समय के साथ-साथ न्यायालय में प्रकरणों की अधिक संख्या और उनके निराकरण के दबाव  का परिणाम है कि अधिकांश न्यायाधीश संभवतः चाहते हुए भी इतनी गंभीरता से प्रसंगों को नहीं देख पाते और ज्यादा से ज्यादा प्रकरणों  का निराकरण करने का प्रयास करते हैं फल स्वरूप इन परिस्थितियों में-  "जिस आम व्यक्ति को न्याय मिल जाए वह भाग्यशाली  है ।"

       माननीय न्यायाधीशों की गरिमा पूर्ण जीवन शैली का ही परिणाम है कि इन स्थितियों के बावजूद भी आज भी हमारे देश में एक आम व्यक्ति को न्यायपालिका पर बहुत भरोसा है । इसीलिए वह कोर्ट दर कोट न्याय की तलाश में भटकता रहता है ।

         यदि  विचार करें तो हमारे देश में ज्यादातर सुनियोजित अपराधों के मूल में अपराधियों की यही भावना प्रभावी होती है कि यदि पकड़े भी गए तब भी दस 20 साल तो न्यायालय प्रक्रिया में गुजर ही जाएंगे इसलिए वह निसंकोच अपनी अपराधिक मनोवृति को अमलीजामा पहना देते है । 

        यदि फास्ट ट्रैक कोर्ट की तरह सभी   प्रकरणों का 1 या 2 वर्ष की अवधि में निराकरण हो  ।अपील भी 6 -8 माह की अवधि में   निराकृत हो जाए तब मुझे विश्वास  है कि सुनियोजित अपराध की संख्या में 70% तक की कमी आ सकती है ।

       मुझे लगता है कि भारत शासन को प्राथमिकता के आधार पर न्यायालयीन प्रक्रिया और  व्यवस्था में सुधार के लिए व्यवहारिक पहलुओं पर भी ध्यान देना चाहिए ।जिनका  निदान होने पर समाज में आम आदमी के लिए भी शांति और संपन्नता का दौर प्रारंभ हो सकता है ।

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